पिछले साल १ ० --१ २ जून को लौटी थी केदारनाथ से ....
केदारनाथ कभी जा हीं नहीं सकती मैं ......मैं हमेशा यही सोचा करती थी
पर अचानक पता नहीं कैसे चली गई ....किसी का साथ मिल गया या भगवान् की मर्जी कुछ कह नहीं सकती पर ..वहाँ की अव्यवस्था और खतरनाक रास्ते को देख मैंने खुद को अनेकों बार कोसा था कि मै क्यों आ गई यहाँ ....और अभी जो कुछ भी वहाँ हुआ और हो रहा है ... ...उसे देख दिल बड़ा व्यथित हो रहा है ...अपने दिल के कुछ ऐसे हीं भावों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूँ ......
सिसक रही चट्टान
आसमां है रो रहा
निस्तब्ध है निशा
ये कौन जा रहा बहा ?
किसी की आँखों का तारा
किसी के जीने का सहारा
काल-कवलित हो गया
देखते हीं देखते
प्रलय कहाँ से आ गया ?
नदी जो कल-कल गाती थी
सड़कें भी इठलाती थी
वो आज वीरानों में
खुद से नज़र चुराती है
कैसे भूल जाए कोई ?
यादें याद आती है ...
प्रकृति से खिलवाड़ का
होता भयानक परिणाम
नाम जिसका गुँजता था
वो हो गए बेनाम .....
कर कल्पना उनकी
रूह काँप जाती है
बिछुड़ गए जो अपनों से
उनके लिए आँखें भर-भर आती हैं .....
सत्ता ,पैसा ,जिस्मफरोशी
में हो जाते हैं मदहोश
अव्यवस्था का पर्याय बन गया
प्य्रारा भारत देश ....
मरने वाले दोषी नहीं थे
सारे थे निर्दोष
हर गली में रावण घूमता
धर कर राम का वेश
कौन बने हनुमान ?
जो पहुचाये सीता तक सन्देश ....
दुर्योधन और शूर्पनखा की जाति न कोई होती
इतिहास पुनः दुहराया जाएगा
सोच प्रकृति पल-पल रोती ....
कौन समझे ये बात
सभी पे .....लालच रुपी पहरे हैं ..
सुरा -सुन्दरी में लिप्त ....
प्रशासक सभी बहरे हैं .....
आस्था ,निष्ठा और भक्ति को
यूँ व्यर्थ न भुनाओ
धार्मिक स्थल को धार्मिक हीं रहने दो
उसे पर्यटन स्थल न बनाओ .....